हुमायूँ का संक्षिप्त जीवन परिचय एक नजर में (Humayun Short intro) |
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नाम – हिमायूँ (Humayun) |
पूरा नाम- नसरूद्दीन मोहम्मद हुमायूँ (Naseeruddin Muhammad Humayun) |
हुमायूँ का जन्म- 6 मार्च, 1508 को |
हुमायूँ का जन्मस्थान- काबूल अफगानिस्तान में, |
हुमायूँ के पिता- बाबर |
हुमायूँ कि माता- माहम बेगम |
हुमायूँ के भाईयों के नाम- कामरान मिर्जा, अस्करी व हिन्दाल (सौतेली माताओं से) |
हुमायूँ कि बहन का नाम- गुलबदन बेगम (इसने हुमायूँ नामा कि रचना की) |
हुमायूँ कि सबसे प्रमुख पत्नी का नाम- हमीदा बानों बेंगम, चाँद बीबी, महा चूचक, मिवहा जान अन्य |
हुमायूँ के बेटे का नाम- जलालुद्दीन मुहम्मद अकबर |
हुमायूँ का उत्तराधिकारी के रूप में, राज्य अभिषेक- 29 दिसंम्बर 1530 को, आगरा के किले में |
हुमायूँ कि राजनैतिक भूल- सिंहासन को अपने भाईयों में बाटना |
हुमायूँ (Humayun) द्वारा लडें गए प्रमुख युद्ध- देवरा का युद्ध (1531), चौसा का युद्ध(1539), बेलग्राम का युद्ध(1540), सरहिंद युद्ध(1555) |
हुमायूँ का अंतिम युद्ध अभियान- कलिंजर युद्ध |
हुमायूँ कि जीवनी का नाम- हिमायूँनामा (उसकी बहन गुलबदन दूारा रचित) |
हुमायूँ का सबसे बडा शत्रु- शेरशाह |
हुमायूँ का निर्वासित जीवन काल- 15 वर्ष |
हुमायूँ दूारा बसाया गया नगर- दीनपनाह नगर |
हुमायूँ के दो प्रसिद्ध चित्रकार- सैयद अली ओर अब्दुसमद् |
शासनकाल- (1530-1556) |
हुमायूँ कि मृत्यू- 1 जनवरी, 1556 को |
मृत्यु का कारण- पुस्तकालय कि सिढिंयों से गिरने के कारण (दिल्ली में) |
हुमायूँ का मकबरा- दिल्ली में |
हुमायूँ मकबरे कि शैली- फारसी शैली(Humayun Tomb) |
Humayun Hindi Gk Question (PDF)
मुगल साम्राज्य के दूसरे बादशाह हुमायूं (Humayun) का जन्म 6 मार्च, 1508 को अफगानिस्तान के काबुल में हुआ था। वह मुगल वंश के संस्थापक बाबर और उसकी पत्नी महम बेगम के सबसे बड़े पुत्र थे। हुमायूँ का जन्म राजनीतिक उथल-पुथल के दौरान हुआ, क्योंकि उस समय बाबर भारतीय में अपना शासन स्थापित करने की जद्दोजहद में लगे थे।
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छोटी उम्र से, हुमायूँ (Humayun) ने एक व्यापक शिक्षा प्राप्त की, इस्लामी धर्मशास्त्र, फारसी साहित्य, गणित और सैन्य रणनीति जैसे विभिन्न विषयों का अध्ययन किया। वह फारसी, अरबी और तुर्किक समेत कई भाषाओं को अच्छी तरह से सीखा। या यू कह सकते है कि हुमायूँ को हिन्दीं से अलग फारसी, अरबी ओर तुर्की तीनो भाषाओं का परिपूर्ण ज्ञान रखता था। जिससे उसे विविध संस्कृतियों और लोगों के साथ वार्तालाप ओर बातचीत में सुविधा होती।
इसके अलावा हुमायूँ के जीवन के शुरुआती वर्षों में पिता बाबर के साथ उसके घनिष्ठ संबंध थे। मुगल वंश के संस्थापक बाबर का अपने अन्य पुत्रों के मुकाबले बडें बेटें हुमायूँ में मोह ज्यादा था। वह अपने अन्य तीन पुत्रों से ज्यादा प्यार हुमायूँ से करता था ओर उसे ही मुगल सल्तनत का अगला सुल्तान बनाना चाहता था क्योंके हुमायूँ मुगल साम्राज्य के विस्तार के लिए महत्वाकांक्षी था । वह बाबर के साथ सैन्य अभियानों पर गया, प्रत्यक्ष रूप से साम्राज्य निर्माण की चुनौतियों और विजय को उसने करीब से देखा था।
पानीपत की लड़ाई (1526): भारतीय इतिहास की सबसे महत्वपूर्ण लड़ाइयों में से एक, पानीपत की लड़ाई हुमायूँ के पिता सम्राट बाबर और दिल्ली सल्तनत के शासक इब्राहिम लोदी के बीच लड़ी गई थी। हालांकि हुमायूँ, इस लड़ाई को लडनें वाला मुख्य किरदार नही था, मगर उसने पिता बाबर के साथ इस युद्ध में मुख्य सहायक की भूमिका निभाई थी।
इसलिए पानीपत की लड़ाई (1526) को कुछ इतिहासकार हुमायूँ का पहला युद्ध सैन्य अभियान मानते है । इसमें मुगल विजयी हुए, उत्तर भारत में अपना वर्चस्व स्थापित किया, यही वह युद्ध था, जिसकी जीत से मुगलो के लिए दिल्ली का रास्ता खुल गया ओर जिसने हुमायूँ को अपने आगामी सैन्य अभियानों के लिए तैयार किया।
खानवा की लड़ाई (1527):– हुमायूं (Humayun) की पहली बड़ी सैन्य लड़ाई मेवाड़ के शक्तिशाली ओर महान राजपूत शासक राणा सांगा के खिलाफ थी। राणा सांगा का उद्देश्य मुगलों को भारत से बाहर खदेडना था और राजपूत प्रभुत्व को कायम रखना था, वह चाहते थे कि बाहरी आंक्राता भारत की धरती से खदेड दिये जाये, इसके लिए सभी स्वदेशी शासको को एकत्रित होकर मुगलों से लडने कि जरूरत थी, मगर ये हो ना सका।
स्वदेशी शासको की आपसी फूट के कारण राणा सांगा ने अकेले ही मुगल सेना को चुनौती दी, ओर वो खूब लडे भी। लेकिन हुमायूँ, बेहतर मुगल रणनीति और तोपखाने की सहायता से, राणा सांगा की सेना को हराने और उत्तर भारत में अपनी सत्ता को ओर अधिक सुरक्षित करने में कामयाब रहा। इस युद्ध से स्वदेशी राजाओं कि एकता की कमी के कारण महान राजपूत शासक राणा सांगा मुगल वर्चस्व दिल्ली के बाहर सम्पूर्ण उत्तर भारत तक फैल गया था।
चँदेरी एक राजपूत गड़ था, जहां स्वदेशी राजपूत राणा सांगा के नेत्रत्व में शासित थे। हुमायूँ (Humayun) कि सेना खानवा कि लड़ाई जीतकर अब, बाबर के नेत्रत्व में चंदेरी की ओर बढ रही थी। समय के अभाव के कारण चंँदेरी सेना संभल ना सकी ओर बडीं आसानी से चँदेरी दुर्ग को घेर लिया गया। हुमायूँ ने अपने अधीनस्थ रहकर संधि करने का पैगाम भेजा। मगर राजपूती सेना ने झुकना स्वीकार नहीं किया। बहुत सारा कत्लेआम हुआ, जनहानि हुई। छटांक भर राजपूती सेना असंख्य मुगली सेना का सामना आखरी सांस तक करती रही ओर फिर चँदेरी हार गया। ओर आखिर में, राजपूती महिलाए ने, अपनी अस्मत के लिए चँदेरी के जौहर कुँण्ड में अपने आपको बलिदान कर दिया।
हुमायूँ (Humayun) का राज्य अभिषेक राजनैतिक तौर पर आगरा किले में 29 दिसंम्बर 1530 को किया गया। मुगल साम्राज्य के उत्तराधिकारी के रूप में हुमायूं का जन्मसिद्ध अधिकार तभी स्पष्ट हो गया था, जब उसके पिता बाबर ने उन्हें नेतृत्व के लिए तैयार किया। बाबर ने हुमायूँ की क्षमता को 1526 के पानीपत सैन्य अभियान के दौरान ही पहचान लिया था और उसे ही महत्वपूर्ण जिम्मेदारियाँ सौंपी, जिससे उसे शासन और सैन्य मामलों में व्यावहारिक अनुभव प्राप्त करने की अनुमति मिली। बाबर यह भली भाँती जानता था कि उसके सभी पुत्रो में, हुमायूँ कि सत्ता संभालने कि काबलियत सबसे अधिक है।
गुलबदन बेगम की हुमायूँनामा के अनुसार हुमायूँ के अन्य कई भाई थे, मगर इनमें मुख्य तीन कामरान, अस्करी व हिन्दाल (सौतेली माताओं से) थे। जो शासन कि इच्छा रखते थे। मगर मुगलिया सल्तनत के मालिक बाबर ने, मुगल बादशाह के रूप में अपने प्रिय बेटे हुमायूँ को ही उत्तराधिकारी माना। क्योकि वह मुगल शासन के लिए हुमायूँ को ही काबिल मानता था।
इतिहासकारो ने जिसे हुमायूँ (Humayun) शासन कि सबसे बडी भूल माना है, वह भूल थी उसके दूारा अपने भाईओं को अपनी सत्ता में बँटवारा देना। एक तरफ जहाँ बहुत सारे दुश्मन गिद्ध कि तरहा नजर जमाए हुए, दिल्ली मुगलिया सल्तनत को देख रहे थे। वहीं हुमायू के भाई कामरान, अस्करी व हिन्दाल भी सत्ता में हिस्सा चाहते थे। उसने कामरान मिर्जा को काबुल ओर लाहौर का सूबेदार, अस्करी मिर्जा को सिंध का सूबेदार व हिंडाल को बिहार व आगरा की कमान सौप दी।
कुछ इतिहास के जानकारों का मानना है कि हुमायूँ ने ऐसा करके अपने पैर पर ही कुल्हाडी मारी थी। क्योंकि बाद में उन्हीं भाईयों ने सत्ता के लालच में विरोध किया, कामरान मिर्जा हुमायूँ का बडा प्रतिदूंदि साबित हुआ।
इसके विपरीत कुछ का मानना कि हुमायूँ (Humayun) दूारा अपने भाइयों के बीच एकता बनाए रखने के लिए ऐसा किया था क्योकि उसे अपने शासन काल के दौरान बिखरे हुए मुग़ल साम्राज्य की नींव स्थिर एवं मजबूत करनी थी। हुमायूँ और उसके भाइयों द्वारा संयुक्त सैन्य मोर्चे ने बाहरी खतरों को दूर करने और मुगल वंश की सत्ता पर पकड़ बनाए रखने में मदद की, बेशक कुछ समय के लिए ऐसा हुआ।
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बाबर के बाद हुमायूँ स्वयं मुगल वंश का दूसरा बादशाह बना। एक तरफ जहां वह अपने पिता द्वारा स्थापित सत्ता का विस्तार करने और उसे मजबूत करने की कोशिस करने में लगा था। वहीं दूसरी ओर अफगान मुगल सत्ता को लगातार चुनौती दे रहे थे। यूँ तो अफगानों ओर मुगलों के बीच बहुत सी छुट-मुट लडाईयां हुई मगर अब वक्त फैसले का था- देवरा कि लडाई 1931 एक निर्णायक मोड साबित हुई।
अफगान महमूद लोदी, नुसरत जहाँ के अलावा शेरशाह सूरी मुगल सल्तनत का सबसे बडा शत्रु बनके उभरा था। वह लगातार अपने सत्ता प्रभुत्व का विस्तार कर रहा था। ओर दूसरी ओर अब स्वदेशी राजपूत शक्तियां भी मुगलो के खिलाफ दोबारा से खडीं होने कि जद्दो-जहद कर रही थी
बेशक अब तक हुमायूँ बहुत से युद्ध लड चुका था मगर देवरा की लड़ाई के दौरान भी वह अपने शासनकाल के प्रारंभिक चरण में था। इस लड़ाई के दौरान हुमायूँ की सैन्य रणनीतियों और नेतृत्व क्षमता की परीक्षा हुई। हुमायूँ कि सेना इस युद्ध में शुरूआत में लड़खडा मगर फिर अपने पुराने अनुभव ओर तोपखानों कि बदोलत अफगानो पर भारी पडीं । हुमायूँ ने इस युद्ध को जीतकर अपने सत्ता में विस्तार किया। ओर दिल्ली कि गद्दी ने फिर से मुगलयाई ताज ओंढ़ लिया।
लेकिन शेरशाह सूरी, अभी भी दिल्ली के बहुत नजदीक था, वह गिद्ध कि निगाहों से दिल्ली की ओर देख रहा था। उसने अफगान महमूद लोदी कि तरह गलती नही की। उसने पहले हारे हुए, महमूद लोदी ओर नुसरत जहां कि बिखरी हुई अफगान सेना को एकत्रित कर, दिल्ली कि ओर एक बार फिर कूच किया। इस बार दोनों पक्षो में कडीं टकरार होने वाली थी-
चौसा की लड़ाई 26 जून, 1539 को, बिहार में चौसा गांव के पास गंगा नदी किनारे लडीं गई थी। यह मुगल सम्राट हुमायूं और बिहार और बंगाल के अफगान प्रमुख शेर शाह सूरी के बीच सत्ता बदल देने वाली लड़ाई थी। एक तरफ जहां हुमायूँ दिल्ली में बैठा था वही अफगान शेर शाह सूरी अपनी कुशल रणनीती के बल पर मुगल सल्तनत के दूरस्त क्षेत्रो पर लगातार आक्रमण कर कब्जा कर रहा था।
उसने पहले ही बिहार और बंगाल के प्रदेशों पर सफलतापूर्वक कब्जा कर लिया था। दूसरी ओर, हुमायूँ इन प्रदेशों को शेरशाह से हारने के बाद बिखरी हुई सत्ता को दोबारा से नियंन्त्रित करने कि कोशिस मे लगा था ।शेर शाह के पास अब एक, सुव्यवस्थित सेना थी जिसमें अफगान और राजपूत दोनों शामिल थे।
चौसा कि लड़ाई दोनों सेनाओं के बीच एक प्रारंभिक झड़प के साथ शुरू हुई। शेर शाह की सेना ने मुगलों पर एक भयंकर हमला करते हुए उन्हें पीछे धकेल दिया। इस शुरुआती झटके में हुमायूँ का भाई हिन्दाल अफगानो दूारा मार गिराया गया। जिसने मुगलयाई सेना को शूरूआत से हताश कर दिया था। इतिहास के कुछ जानकारों का मानना है कि मुगलयाई सेना अफगानी सेना से संख्या में दुगनी थी। मगर शेरशाह सूरी की सेना लगातार मुगलों को पीछे धकेल रही थी।
ओर अब परिणाम नजदीक था, स्थिति की गंभीरता को समझते हुए, हुमायूँ ने गंगा नदी के बीच में एक छोटे से द्वीप पर शरण लेने का फैसला किया। हालाँकि, उसका यह कदम एक रणनीतिक गलती साबित हुई। द्वीप ने बड़ी मुगल सेना के लिए सीमित स्थान था जिस कारण से अफगानी सेना ने मुगलों पर ओर ज्यादा आक्रामक रूप से प्रहार किया। अब हुमायूँ के पास दो ही रास्ते थे या तो वह उस बची हुई छनिक सेना के साथ लडता हुआ मारा जाए या फिर गंगा नदी पार करके भागा जाए।
हुमायूं (Humayun) ने समय कि प्रस्थिती को समझते हुए अपनी जान बचाना उपयुक्त समझा ओर गंगा नदी पार कर रणभूमि छोड दी। इस बार हुमायूँ कैद होने या मारा जाने से बाल-बाल बचा और अपने शेष सैनिकों को पीछे छोड़कर नदी पार करने में सफल गया।हुमायूँ की इस हार के कारण शेर शाह को बिहार और बंगाल के साथ उत्ररी भारत की सत्ता पर भी नियंन्त्रन भी मिल गया था ।
बिलग्राम की लड़ाई, जिसे ग्वालियर की लड़ाई के रूप में भी जाना जाता है, एक महत्वपूर्ण सैन्य मुठभेड़ थी जो 1540 में हुई थी। यह युद्ध शेर शाह सूरी ओर मुगल बादशाह हुमायूँ के बीच हुआ था। 1539 में चौसा के युद्ध में अपनी हार के बाद, हुमायूँ ने अपने साम्राज्य पर नियंत्रण खो दिया था और अपने खोए हुए क्षेत्रों को पुनः प्राप्त करने की जद्दो-जहद कर रहा था।
दोनों पक्षों में वर्चस्व की लड़ाई तेज होने के कारण दोनों पक्षों में जमकर युद्ध लडा गया, दोनो ओर से भारी जनहानि हुई। एक बड़ी सेना होने के बावजूद, हुमायूँ की सेना व्यावस्थित व संगठित नही थी, जबकि शेरशाह की सेना सुव्यवस्थित, अनुशासित एवं एकत्रित थी।
लड़ाई के दौरान, शेर शाह सूरी की सेना ने अपनी बेहतर रणनीति और रणनीतियों का प्रभावी ढंग से उपयोग किया। उन्होंने हुमायूँ की सेना को भारी नुकसान पहुँचाया, जिससे उसे एक बार फिर पीछे हटने के लिए मजबूर होना पड़ा। बिलग्राम की लड़ाई में हार हुमायूँ के लिए एक बड़ा झटका था, जिससे उसकी स्थिति और कमजोर हो गई और इस क्षेत्र में शेर शाह सूरी का वर्चस्व उत्तर भारत में ओर ज्यादा मजबूत हो गया।
दूसरी ओर, हुमायूँ (Humayun) को निर्वासन के लिए मजबूर होना पडा और अगले कुछ साल अपने खोए हुए साम्राज्य को वापस पाने के लिए दर- दर भटकता रहा, वह सिंध गया ओर फिर वहा से फारस के शाह से जाकर मिला।
1555 में सरहिंद की लड़ाई एक महत्वपूर्ण घटना थी जिसके कारण हुमायूँ (Humayun) की सत्ता में वापसी हुई। अफगान शासक शेर शाह सूरी द्वारा मुगल सिंहासन से बेदखल किए जाने के बाद, हुमायूँ ने फारस में शरण ली। फ़ारसी शाह के समर्थन से, हुमायूँ ने एक सेना एकत्र की और अपने साम्राज्य को पुनः प्राप्त करने के लिए फिर से एक युद्ध लडा गया जसे सरहिंद कि लडाई कहा गया।
हुमायूं की सेना, उनके भरोसेमंद सेनापति बैरम खान के नेतृत्व में, विजयी हुई, अफगान शासकों को हराकर और मुगल नियंत्रण को फिर से स्थापित किया। सरहिन्द कि जीत ने हुमायूँ को दोबारा सत्ता पर वापस लौटने के साथ-साथ मुगल वंश कि स्थाई सत्ता कि नीव भी रखी।
शेरशाह सूरी की मृत्यु के बाद, अफगान साशन में आपसी विद्रोह दिखने लगा। सिकंदर शाह सूरी व इब्राहिम शाह सूरी व अन्य ने शासन की दावेदारी पेश की। आपसी फूट बढी ओर परिणाम युद्ध स्तर पर पहुँच गया । ओर आखिर में सिकंदर शाह सूरी ने अफगानी सत्ता को संभाला।
दूसरी ओर हुमायूँ (Humayun) इस आपसी फूट का फायदा उठाकर फारस शाह कि मदद से एकत्रित मजबूत सेना के साथ दिल्ली कि ओर बढ रहा था। सरहिंन्द की धरती पर आकर सिकंदर शाह सूरी की तीस हजारी सेना को हुमायूँ ने सरहिंन्द में धूल चटा दी। ओर दोबारा से हुमायूँ (Humayun) ने अपनी सत्ता का कब्जा ली। अफगानो को मुंह की खानी पडी ओर पीछे हटना पडा।
सरहिंद मे जीत के बाद मुगल एवं अफगानो ने दोबारा उठने कि कोशिश की जिसे माछीवाडा युद्ध कि लडाई कहा गया, अफगानो को यहां से भी खदेड दिया गया ओर इस तरहा लाहौर से लेकर दिल्ली तक एक बार फिर से मुगल परचम लहराया ओर हुमायूँ ने दोबारा दिल्ली का तख्त हासिल कर लिया।
इतिहास के जानकार मानते है कि हुमायूँ (Humayun) की मृत्यू 27 जनवरी, 1556 को, दिल्ली में अपने पुस्तकालय कि सीढीयों से गिरकर हुई। मुगल सल्तनत के लिए यह एक दुखद दर्घटना थी। अफगानो से वापिस सत्ता हासिल कर, अभी हुमायूँ दिल्ली में रह रहा था। माना जाता है कि जब वह अपने पुस्तकालय कि सीढ़ियों से नीचे आ रहे था, दुर्भाग्य से वह लड़खड़ा गया ओर फिसलकर गिर गया जिससे उसके सिर में गंम्भीर चोटें आयी।
चोटों के कारण हुमायूँ गहरी नींद में सो गया ओर वह स्वांश होते हुए भी उठ न सका। उसके हकीमों ने हुमायूँ को बचाने का बहुत प्रयत्न किया मगर वह 47 वर्ष कि आयु में, 27 जनवरी, 1556 को मृत्यु को प्राप्त हुआ। हुमायूँ की मृत्यु के बाद, उसके पुत्र अकबर, मुगल सल्तनत का अगला बादशाह बनाया गया। यूं तो अकबर बादशाह बनने कि आयु के लिए बहुत छोटे थे मगर वह आगे चलकर मुगल साम्राज्य के सबसे प्रभावशाली और सफल शासकों में से एक बने।
हुमायुं का मकबरा भारत कि राजधानी दिल्ली में स्थित है, इसे 16वीं शताब्दी में, सम्राट हुमायूं कि मृत्यु के बाद (After Humayun death) उनकी विधवा बेगम, बेगा बेगम ने उनकी याद में बनवाया था। यहा मकबरा एक विशाल परिसर में स्थित है जिसमें हरे-भरे बगीचे और कई अन्य संरचनाएं शामिल हैं। मकबरा अपने आप में मुगल वास्तुकला का एक उत्कृष्ट उदाहरण है और जिसे ताजमहल का अग्रदूत माना जाता है।
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हुमायूँ के मकबरा फारसी व इण्डों शेली का बेहदरीन मिश्रण है, जिसे यूनेस्को की विश्व धरोहर स्थलों मे गिना जाता है। इसके मुख्य भवन के केंद्र में एक गोल गुंबद है और इसके चारों ओर चार ऊंचे मिनार स्थित हैं। मकबरे के बाहरी हिस्से को बारीक ओर जटिल नक्काशी से सजाया गया है।
मकबरे के अंदर हुमायूं की कब्र वाला एक विशेष कमरा है, जो एक स्मारक की तरह है। यह सफेद संगमरमर से बना है और इसमें फूलों की खूबसूरत नक्काशी और कुरान के लेख लिख गये हैं। हुमायूँ की वास्तविक कब्र नीचे तलघर में स्थित है।
मकबरे के आसपास के बगीचों को चारबाग कहा जाता है। वे रास्ते और पानी के फव्वारों के साथ चार भागों में विभाजित हैं। उद्यान अच्छी तरह से बनाए हुए हैं और पर्यटकों के लिए एक सुनहरा नजारा पेश करते है।हुमायूँ का मकबरा एक महत्वपूर्ण ऐतिहासिक स्थल और एक लोकप्रिय पर्यटक आकर्षण है। यह मुगल साम्राज्य की भव्यता और स्थापत्य कौशल को दर्शाता है।
A: हुमायूँ भारत का दूसरा मुगल सम्राट था। जिसने अपने पिता बाबर के बाद 1530 में मुगल साशन कि बागडोर संभाली थी। बाद में अफगान शेरशाह सूरी के हाथो, चौसा के युद्ध (1539) में शिकस्त के मिलने के बाद निर्वासित जीवन जीने के लिए मजबूर हो गया था।
A: हुमायूँ कला का संरक्षक था और उसने मुग़ल दरबार में फ़ारसी साहित्य, संगीत और वास्तुकला को बढ़ावा देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
शेरशाह सूरी से मिली कडीं हार से हुमायूँ निर्वासित जीवन जीने के लिए मजबूर हो गया। वह लगभग 15 वर्षो तक दर- दर अलग प्रान्तों में भटकता रहा ओर फिर आखिर में वह सिंध होता हुआ फारस पहुँचा, जहां उसने फारस के शाह की सहायता से अपनी सेना को दोबारा से एकत्रित किया।
हुमायूँ कि बहन गुल बदन बेगम ने।
हुमायँ वह मुगल शासक था जो ज्योतिषी में विश्वास रखता था ओर सप्ताह में सातो दिंन अलग रंग के कपडे पहनता था।
हुमायूँ का बेटा अकबर था, जिसे मुगल शासन काल का सबसे योग्य एवं प्रभुत्व वाला शासक माना जाता है।
हुमायूं के मकबरे का निर्माण हुमायूं की पत्नी महारानी बेगा बेगम ने 1556 में उनकी मृत्यु के बाद शुरू किया था। निर्माण 1565 में शुरू हुआ और 1572 में पूरा हुआ। हुमायूँ का मकबरा मुगलकाल के एतिहासिक महत्व को दर्शाता है।
हुमायूँ का मकबरा मुख्यतः फारसी शैली में बना है। इसमें भारतीय स्थपत्य कला को झलकाया गया है। वर्ष 1993 में, सांस्कृतिक और ऐतिहासिक महत्व के लिए यूनेस्को ने इसे विश्व धरोहर स्थल के रूप में स्थान दिया है।
हुमायुं का मकबरा दिल्ली में स्थित है। इसे 16वीं शताब्दी में बनाया गया था और यह एक महत्वपूर्ण ऐतिहासिक स्थल है।
फ़ारसी वास्तुकार मिराक मिर्ज़ा दूारा हुमायूँ के मकबरे को तैयार किया गया था।
दीनपनाह नगर की स्थापना भारत कि राजधानी दिल्ली में स्थित है इसे मुग़ल सम्राट हुमायूँ (Humayun) द्वारा बसाया गया था। यह नगर मुग़ल साम्राज्य की सदियों तक चली आई सभ्यता और संस्कृति का प्रतीक है। इसे 16वीं सदी में निर्माण किया गया था। यह नगर अपने आदर्शवादी वास्तुशिल्प, सुंदर बाग़-बगिचे, और शानदार मकबरों के लिए प्रसिद्ध है।
इतिहास के जानकार मानते है कि जब हुमायूँ चौसा युद्ध रणभूमि से गंगा नदी पार करके भाग रहा था। तब उसे निजाम भिस्ती ने डूबने से बचाया था। जिसके उपरान्त हुमायूँ ने निजाम भिस्ती को खुश होकर दिल्ली सल्तनत का बादशाह घोषित किया था। वह एक साधारण किसान था। जो बाद में मुगल सेना मे भरती हो गया था।
खानवा की लड़ाई (1527)– हुमायूं (Humayun) ने अपनी पहली बड़ी सैन्य लड़ाई मेवाड़ के शक्तिशाली, महान राजपूत शासक राणा सांगा के खिलाफ लडी थी।
देवरा का युद्ध (1531)– 1531 ईस्वी में हुमायूँ ने अफगानों के खिलाफ देवरा के युद्ध में भाग लिया।
चौसा का युद्ध (1539)– 1539 ईस्वी में हुमायूँ ने बहादुर शाह सूरी के खिलाफ चौसा के युद्ध में भाग लिया। यह युद्ध हुमायूँ के लिए असफल रहा। उसे अपनी पराजय के बाद दिल्ली छोड़कर भागना पड़ा।
बेलग्राम का युद्ध (1540)– 1540 ईस्वी में हुमायूँ ने अफगानों के खिलाफ बिलग्राम के युद्ध में लड़ाई लडीं ।
सिरहिंद का युद्ध (1555)-1555 ईस्वी में हुमायूँ ने अपनी सत्ता को स्थापित करने के लिए शेरशाह सूरी के खिलाफ सिरहिंद के युद्ध में भाग लिया।इस युद्ध में हुमायूँ ने शेरशाह सूरी को पराजित किया और अपनी सत्ता को दोबारा से स्थापित किया।
बाबर कि मृत्यु के बाद, आंतरिक संघर्षों और उत्तराधिकार के विवादों ने उसके शासन को कमजोर कर दिया और उसका ध्यान भटका दिया जिसका फायदा अफगानो को हुआ। उन्होंने शेर शाह सूरी का सामना किया ओर पहले कि तरह अपने दुश्मन को कमजोर समझा, जिसका परिणाम उसकी सत्ता को ले डूबा। उसके निर्वासन के दौरान मुगल साम्राज्य पर से नियंत्रण खो गया और समर्थन हासिल करने में बहुत अधिक समय बेकार कर दिया। हुमायूँ का अधिक समय भटकते हुए निकला। आन्तिरीक व बाहरी दोनो कारक उसकी असफलता के कारण बनें।
ब्रिटिश इतिहासकार स्टैन लेन पूल दूारा, उसका तात्पर्य हुमायूँ के निर्वासित जीवन से था। क्योकि उसका पूरा जीवन यूँ ही भागते ठोकर खाते हुए गुजरा, क्योकि अपने निर्वासन के समय में वह भटकता रहा, शेर शाह सूरी के दूारा सत्ता से उखाड दिये जाने के बाद, लगभग 15 वर्षों तक हुमायूँ अपने शासन को वापस पाने कि लिए संघर्ष करता रहा। ओर जब वह साशन उसे मिल गया तो वह दिल्ली में सिढीयों से ठोकर खाकर मर गया।
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